पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२०४

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद । १६७ सारा उपद्रव काव्य को कलाओं के भीतर लेने से हुआ है। इसी कारण काव्य के स्वरूप की भावना भी धीरे धीरे चेल-बूटे और नक्काशी की भावना के रूप में आती गई । हमारे यहाँ काव्य' की गिनती चौसठ कलाओं में नहीं की गई है। इसी से यहाँ वाग्वैचित्र्य - के अनुयायियो द्वारा चमत्कारवाद, वक्रोक्तिवाद आदि चलाए जाने पर भी इस प्रकार का वितण्डावाद नहीं खड़ा किया गया । इधर हमारी हिन्दी में भी काव्य-समीक्षा के प्रसङ्ग मे 'कला' शब्द की वहुत अधिक उद्धरणी होने लगी है। मेरे देखने में तो हमारे काव्यसमीक्षा-क्षेत्र से जितनी जल्दी यह शब्द निकले उतना ही अच्छा । इसका जड़ पकड़ना ठीक नहीं । अब मैं क्रोचे की मुख्य मुख्य बातो को, विशेषतः ऐसी बातों को जो काव्य के सम्बन्ध में भारतीय भावना के विरुद्ध पड़ती है, विचार के लिए लेता हूँ-- । पहले इस प्रश्न को लीजिए कि काव्य-सम्बन्धिनी भावना को मूल या, प्रधान रूप क्या है । क्रोचे ने कल्पना-पक्ष को प्रधानता दे कर उसका रूप ‘ज्ञानात्मक' कहा है। हमारे यहाँ के रससिद्धान्त के अनुसार उसका मूल रूप भावात्मक या अनुभूत्यात्मक है । सनोविज्ञान के अनुसार 'भाव' कोई एक अकेली वृत्ति नहीं, एक वृत्ति-चक्र (System ) है जिसके भीतर बोधवृत्ति या ज्ञान (Cognition ), इच्छा या संकल्प (Conation ), प्रवृत्ति ( Tendency ) और लक्षण (Synaptoms )--ये चार मानसिक और शारीरिक वृत्तियाँ आती है । अतः भाव का एक अवयव प्रतीति या बोध भी होता है ।। thetic emotion exists. My only comments are that it does not follow that the aesthetic emotion does exist; and that, as matter of fact, they are wrong --John Webster and The Elizabethan Drama,