पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२२

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| काव्य में प्राकृतिक दृश्य स्वरूप सङ्घटित करने में कम होकर अलङ्कार आदि बाह्य आडम्बर फैलाने में अधिक होने लगा। पर विभावन द्वारा जब वस्तु-प्रतिष्ठा पूर्णरूप से हो ले तब आगे और कुछ होना चाहिए। विभाव वस्तु-चित्रमय होता है; अतः जहाँ वस्तु श्रोता या पाठक के भावो को आलम्बन होती है वहाँ अकेला उसका पूर्ण चित्रण ही काव्य कहलाने में समर्थ हो सकता है। पिछले कवियो में इस वस्तु-चित्र का विस्तार क्रमशः कम होता गया । प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण से वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि। सच्चे कवियो की कल्पना ऐसे रूपो की योजना करने में, ऐसी वस्तुएँ इकट्ठी करने में प्रयुक्त होती थी जिनसे किसी स्थल का चित्र पूरा होता था, और जो श्रोता के भाव को स्वयं आलम्बन होती थी। वे जिन दृश्यों को अङ्कित कर गए हैं उनके ऐसे व्योरो को उन्होंने सामने रखा है जिनसे एक भरा-पूरा चित्र सामने आता है। ऐसे दृश्य अङ्कित करने के लिए प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण की आवश्यकता होती हैं । उसके स्वरूप में इस प्रकार तल्लीन होना पड़ता है कि एक-एक-च्योरे पर ध्यान जाय । उन्हें इस बात का अनुभव रहता था कि कल्पना के सहारे चित्र के भीतर एक-एक वस्तु और व्यापार का संश्लिष्ट रूप में भरना जितना ज़रूरी है उतना उपमा आदि ढूँढ़ना नहीं। इसी से उनके चित्र भरे-पूरे हैं, और इधर के कवियों ने जहाँ परम्परा-पालन के लिए ऐसे चित्र खींचे भी हैं वहाँ वे पूर्ण चित्र क्या, चित्र भी नहीं हुए हैं। उनके चित्र ( यदि चित्र कहे जा सकें ) ऐसे ही हुए हैं जैसा किसी चित्रकार का अधूरा छोड़ा हुआ चित्र ; जिसमें कहीं एक रेखायहाँ लगी है, कहीं वहाँ–कहीं कुछ रङ्ग भरा जा सका है, कहीं जगह खाली है। चित्रकला के प्रयोग द्वारा इस बात की परीक्षा हो सकती है। वाल्मीकि के वर्षा-वर्णन को लीजिए और जो-जो वस्तुएँ आती जायें उनकी आकृति ऐसी सावधानी से अङ्कित करते चलिए कि कोई वस्तु छूटने न पावे। फिर गोस्वामी तुलसीदासजी का भागवत से