पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२३८

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२३३ काव्य में अभिव्यञ्जनावाद कारण योरप के काव्य-क्षेत्र में उत्पन्न वक्रोक्ति या वैचित्र्य की प्रवृत्ति जो हिन्दी के वर्तमान काव्यक्षेत्र में आई उससे खड़ी बोली की कविता की व्यञ्जना-प्रणाली में बहुत कुछ सजीवता और स्वच्छन्दता आई । लक्षणों के अधिक प्रचार से काव्यभाषा की व्यञ्जकता अवश्य बढ़ रही है। दूसरी अच्छी बात यह हुई है कि अप्रस्तुतों या उपमानो के रखने में केवल सादृश्य-साधर्म्य पर दृष्टि न रहकर उसके द्वारा उत्पन्न प्रभाव पर अधिक रहने लगी है। पर यह सच शुभ लक्षण देखकर जितना सन्तोष होता है उससे शायद ही कुछ कम खेद यह देखकर होता है कि अधिकतर लोग केवल वक्रती या अभिव्यञ्जना की विचिन्नता को ही सब कुछ मानने लगे हैं। जीवन की अनेक मार्मिक दशाओ, जगत् की अनेक मार्मिक परिस्थितियों के उद्घाटन द्वारा भावो में मरन करने में कवियों की वाणी तत्पर नहीं दिखाई दे रही है। अतः वर्तमान रचनाओं को बहुत सा भाग जीवन से विच्छिन्न सा दिखाई पड़ता है। (३) जीवन की विविध मार्मिक दुशाओं को प्रत्यक्ष करनेवाले प्रवन्ध-काव्यों की ओर से उदासीनता और मुक्तको विशेषतः प्रेमोद्वारपूर्ण प्रगीत मुक्तको (Lyrics)-की ओर अत्यन्त अधिक प्रवृत्ति । | यह योरप के वर्तमान काव्य-क्षेत्र की बहुत व्यापक क्या सामान्य प्रवृत्ति है जिसके कारण वहाँ बहुत दिनो से सफल महाकाव्य के दर्शन दुर्लभ हो गए है। मिल्दन, दांते और गेटे की रचनाएँ ही अन्तिम के समान दिखाई पड़ रही हैं। शेली के समय से लेकर अब तक महाकाव्य के लिए प्रयत्न तो होते रहे पर सफल नही । बात यह है कि प्रवृत्ति अन्तवृत्ति-निरूपक (Subjective ) प्रगीत मुक्तको की ओर ही अधिक हो जाने के कारण वाह्यार्थ-निरूपिणी ( Objective ) प्रतिभा का ह्रास हो गया और छोटी-छोटी फुटकल रचनाओ के अभ्यास के कारण किसी सुव्यवस्थित, भव्य और विशाल आयोजन