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चिन्तामणि

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२३४ चिन्तामणि की क्षमता जाती रही । इस सम्बन्ध में डाक्टर केर ( W. P. Ker) की बात ध्यान देने योग्य है । योरप में महाकाव्य के हास के कारण का विचार करते हुए वे एक बड़ा भारी कारण उपन्यासो को चलन बताते हैं । उपन्यासों का बहुत कुछ आकर्पण संवादों में----बात-चीत के रंग-ढंग में होता है । इस बात में पद्य-बद्ध कथाकाव्य उनका सामना नहीं कर सकते । पर आधुनिक प्रवन्ध-काव्यों के प्रयासी प्रायः संवादों को ही, आकर्षण की वस्तु समझ, प्रधानता दिया करते हैं। कथाप्रवाह को मार्मिक बनाने का प्रयत्न वे नहीं करते ।* इधर पन्द्रह वर्ष के भीतर के हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र को ले तो डाक्टर केर की बात बहुत कुछ ठीक घटती पाई जायगी । वात यह है कि यदि एक जगह की प्रवृत्ति दूसरी जगह पहुँचाई जायगी तो उसके साथ लगी हुई भलाई या बुराई भी । मैथिलीशरणजी गुप्त के “साकेत को लीजिए जिसे काव्य की दृष्टि से मैं खड़ी बोली की अत्यन्त प्रौढ़ रचना मानता हूँ, उसमे पुराने ढाँचे का शब्द-कौशलपूर्ण चमत्कार और नए ढंग की अभिव्यञ्जना का वैचित्र्य दोनो प्रचुर परिमाण में पाए जाते है । दोनो का सुन्दर मेल उस काव्य की विशेरता है। पर खेद है कि एक बड़ा प्रबन्ध-काव्य या महाकाव्य लिखने की इच्छा उन्हें उस समय हुई जब उनकी प्रवृत्ति देखा-देखी अंगरेज़ी ढंग के फुटकल प्रगीत काव्यो ( Lyrics ) की ओर हो चुकी थी । इससे प्रवन्धकाव्य के अवयवों के जीवन की विविध दशाएँ सामने लानेवाले

  • Most of the great successes in prose-narrative are won through dialoguc, not through pure narrative. Here verse cannot compete. * •*Narrative poetry must rely far more than the novel on pure narratne Narrative poetry having to rely greatly upon pure narrative must give up most of the openings used so fincly by the great prose story-tellers.

( w. P. Ker. )