पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२६४

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद "... २५६ हुई तब से हिन्दी में नए ढंग के गद्यकाव्य वहुत दिखाई मड़ने लगे । श्रीयुत रायकृष्णदासजी की 'साधना', वियोगी हरि का 'अन्तर्नाद आदि कई प्रसिद्ध पुस्तको के अतिरिक्त आज-कल मासिक पत्रिकाओं में भो समय समय पर अनेक रूप रूप-रंग के भावात्मक गद्य-प्रबन्ध निकला करते हैं । साहित्य में इस प्रकार के गद्य-प्रवन्धों का भी एक विशिष्ट स्थान है। पर इनकी भरमार मैं अच्छा नहीं समझता । यदि इसी प्रकार के गद्य की ओर ही लोगों का ध्यान रहेगा, तो प्रकृत गद्य का विकास रुक जायगा और भाषा की शक्ति की वृद्धि में बहुत बाधा पड़ेगी । वर्तमान उर्दू-साहित्य के क्षेत्र में भी इस प्रकार के भावामक गद्य की प्रवृत्ति देख उर्दू-साहित्य के इतिहास-लेखक श्रीयुत रामाबाबू सकसेना बहुत घबराए हैं । निवन्ध. ऐसे प्रकृत निबन्ध जिनमें विचार-प्रवाह के बीच लेखक के व्यक्तिगत वाग्वैचित्र्य तथा उसके हृदय के भावो की अच्छी झलक हो, हिन्दी में अभी कम देखने में आ रहे हैं। आशा है इस अङ्ग की पूर्ति की ओर भी हमारे सहयोगी साहित्य-सेवियों का ध्यान जायग । भाषा--- साहित्य के नाना अङ्गों का विशद रूप में निर्माण देख जितना आनन्द होता है उतना ही भाषा की ओर असावधानी देख खेद होता है। नासिक पत्रिकाओं में बहुत से लेखों को उठाकर देखिए तो उनमें व्याकरण की अशुद्धियाँ भरी मिलेगी । हमारे सुयोग्य सम्पादकगण यदि इस ओर ध्यान दें तो मुझे विश्वास है कि यह बुराई दूर हो सकती है । खैर, यह बुराई तो दूर हो जायगी । पर हमारी भाषा का स्वरूप ही विकृत करनेवाली एक प्रवृत्ति बहुत भयङ्कर रूप में बढ़ रही है----वह है अंगरेजी के चलते वाक्यो और मुहावरों को शब्दअति-शब्द अनुवाद करके रखना । ‘दृष्टिकोण, ‘प्रकाश डालना