पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य में प्राकृतिक दृश्य शङ्का के लिए कोई स्थान ही नहीं रहा कि प्राकृतिक दृश्यो के वर्णन में कौन सा रस है ? जो-जो पदार्थ हमारे किसी न किसी भाव के विषय हो सकते है उन सबका वर्णन रस के अन्तर्गत है , क्योकि ‘भाव' का ग्रहण भी रस के समान ही होता है। यदि रति-भाव के रस-दशा तक पहुँचने की योग्यता दाम्पत्य रति' में ही मानिए तो पूर्ण भाव के रूप में भी दृश्यो का वर्णन कवियों की रचनाओं में बराबर मिलता है । जैसे काव्य के किसी पात्र का यह कहना कि “जब मै इस पुराने आम के पेड को देखता हूँ तब इस बात को स्मरण हो आता है कि यह वही है जिसके नीचे मै लड़कपन में बैठा करता था, और सारा शरीर पुलकित हो जाता है, मन एक अपूर्व भाव में मग्न हो जाता है । विभाव, अनुभाव और सञ्चारी से पुष्ट भाव-व्यञ्जनी का उदा- हरण होगा ।। पहले कहा जा चुका है कि जो वस्तु मनुष्य के भावो का विषय या आलम्बन होती है उसका शब्द-चित्र यदि किसी कवि ने खींच दिया तो वह एक प्रकार से अपना काम कर चुका । उसके लिए यह अनिवार्य नहीं कि वह आश्रय' की भी कल्पना करके उसे उस भाव का अनुभव करता हुआ, हर्ष से नाचता हुआ या विषाद से रोता हुआ, दिखावे । मै लिम्बन-मात्र के विशद वर्णन को श्रोता में रसा- नुभव ( भावानुभव सही) उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ मानता हूँ । यह बात नही है कि जब तक कोई दूसरा किसी भाव का अनुभव करता हुआ और उसे शब्द और चेष्टा द्वारा प्रकाशित करता हुआ न दिखाया जाय तव तक रसानुभव हो ही नहीं । यदि ऐसा होता तो हिन्दी में ‘नायिका-भेद' और 'नख-सिख' के जो सैकड़ो ग्रन्थ बने हैं उन्हें कोई पढ़ता ही नहीं। नायिका-भेद में केवल शृङ्गार-रस के आलम्बन का वर्णन होता है, और ‘नख-सिख' के किसी पद्य में उस आलम्बन के भी किसी एक अङ्ग-मात्र को । पर ऐसे वर्णनो से रसिक लोग बराबर