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चिन्तामणि

9F चिन्तामणि ख़याली पुलाव पकाने में लगती है। ऐसी कायर कल्पना ही से सचे काव्य का काम नहीं चल सकता जो जगत् और जीवन से सौन्दर्य और मङ्गल की कुछ सामग्री ले भागे और अलग एक कोने में इकट्ठ करके उछल-कूदा करे। ब्रा की व्यक्त सत्ता सतत क्रियमाण है । अभिव्यक्ति के क्षेत्र में स्थिर ( Static ) सौन्दर्य और स्थिर मङ्गल कहीं नहीं ; गत्यात्मक ( Dj natinic ) सौन्दर्य और गत्यात्मक मङ्गल ही है ; पर सौन्दर्य की गति भी नित्य र अनन्त हैं और मङ्गल की भी । गति की यही नित्यता जगन की नित्यता है । सौन्दर्य र मङ्गल वास्तव में पर्याय है। कला-पक्ष से देखने में जो सौन्दर्य है, वही धर्मपक्ष से देखने मे मङ्गल है । जिस सामान्य काव्यभूमि पर प्राप्त होकर हमारे भाव एक साथ ही सुन्दर और मङ्गलमय हो जाते हैं उसकी व्याख्या पहले हो चुकी है। कवि मङ्गल का नाम न लेकर सौन्दर्य ही का नाम लेता है। और धार्मिक सौन्दर्य की चर्चा बचाकर मङ्गल ही का जिक्र किया करता है । टाल्सटाय इस प्रवृत्ति-भेद को न पहचानकर काव्यक्षेत्र में लोकमङ्गल का एकान्त उद्देश्य रखकर चले इससे उनकी समीक्षाएँ गिरजाघर के उपदेश के रूप में हो गई । मनुष्य-मनुष्य में प्रेम और भ्रातृभाव की प्रतिष्ठा ही काव्य का सीधा लक्ष्य ठहराने से उनकी दृष्टि बहुत सङ्कचित हो गई, जैसा कि उनकी सबसे उत्तम ठहराई हुई पुस्तको की विलक्षण सूची से विदित होगा । यदि टाल्सटाय की धर्म- भावना में व्यक्तिगत धर्म के अतिरिक्त लोक-धर्म का भी समावेश होता तो उनके कथन में शायद इतना असमञ्जस्य न घटित होता । अब यहां यह बात फिर स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि कविता का सम्वन्ध ब्रह्म की व्यक्त सत्ता से है, चारो ओर फैले हुए गोचर जगत् से है ; अव्यक्त सत्ता से नहीं । जगत् भी अभिव्यक्ति है; काव्य मी अभिव्यक्ति है । जगत् अव्यक्त की अभिव्यक्ति है और काव्य

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