१०० चित्रशाला " क्षत्राणी के शरीर में विद्युत्-धारा-सी दौड़ गई । वह बोली-देवर, सचमुच तुम मेरी इच्छा का रंग लाए । मैं यही रंग चाहती थी। रामसिंह हंसता हुधा बोला -"मैंने कहा था कि भौजी मैं तुम्हारे साथ होली 'जरूर खेलूँगा।" इतना कहकर उसने लोटे में से दूसरा चुल्लू लेकर भौजी के गालों पर मल दिया । शंकरबरश खड़ा यह नीला देख रहा था। वह कह उठा-परे, यह तो रक्त मालूम होता है ? भौजी ने देवर के हाथ से लोटा छीनकर उसको उस रक्त से नहला दिया और विकट हास्य करके बोली-देवर, आज होली है ! रामसिंह भी योन उठा-होली है ! शंकरवश आगे बढ़े । युवती ने कहा-खवरदार ! तुम आगे मत बढ़ो। यह रंग तुम्हारे लिए नहीं है ! इसका एक बूंद भी तुम्हें नहीं मिलेगा। शंकरबहश पती का रूप देखकर डर गया । यह चार पग पीछे हटफर बोला-पर यह क्या है ? रंग तो नहीं मालूम युवती-यह उस ज़मींदार का रक्त है जिसके भय के मारे सुम अपनी बहू-बेटी त उसको अर्पण करने को तैयार रहते थे । इतना सुनते ही शंकरवश चिल्लाकर वहां से भाग खड़े हुए। भौजी ने फिर कहा-देवर, होली है? रामसिंह ने कहा-मोजी, होली है। इतने ही में द्वार पर बदा कोलाहल सुनाई पड़ा। रामसिंह ने कहा-मौजी, तुमसे होली खेज ली । साध पूरी हो गई। श्रय लाता हूँ। भौजी-कहाँ ? रामसिंह-फाँसी जटकने । मौजी-अरे, तो क्या जान से मार डाला? होता।
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१०८
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