सच्चा कवि १०३ स्थान पर बैठ गए। थोड़ी देर तक दरवार में पूरा सन्नाटा रहा। तदनंतर महाराज ने दाहिनी ओर बैठे हुए वृद्ध सजन से धीमे स्वर में कुछ कहा। वृद्ध सजन उठे और उन्होंने एक युवक की ओर देखकर कहा- "मोहनलाल!" युवक तुरंत खड़ा हो गया, और उसने कहा-श्रीमन् ! वृद्ध-महाराज तुम्हें देखना चाहते हैं। आगे श्रायो। युवक अपने वख सँभालता हुआ, शिष्टता-पूर्ण निमीकता के साथ, धीरे-धीरे महाराज के सिंहासन के सम्मुख पाकर खड़ा हुया । उसने एक बार फिर महाराज को प्रणाम किया, और चुपचाप हाथ बाँध- कर खड़ा हो गया । महाराज ने एकावार युवक को सिर से पैर तक ध्यान-पूर्वक देखा । उनके मुख पर संतोष की रेखा झलक उठो । उन्होंने वृद्ध सजन से धीमे स्वर में कहा-"इस युवक को देखकर मैं बहुत संतुष्ट हुना।" फिर महाराज ने युवक की ओर देखकर कहा-"मोहनलाल, मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि तुम एक अच्छे कवि हो । अंच्छा, अपनी रचना सुनायो।" मोहन ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। उसने चुपचाप गंभी- रता-पूर्वक अपनी जेब से एक काग़ज़ निकाला ; कुछ कापती हुई उँगलियों से उस झाराज को खोला ; एक दृष्टि राजकवि की ओर डाली, और कविता पढ़ना शुरू कर दिया । मोहन ने पहले धीरे-धीरे पड़ना शुरू किया । क्रमशः उसका स्वर उच्च हो चला । कविता के भावों के साथ-साथ युवक कवि का स्वर घटने-पढ़ने लगा । उसके हाथ हिलने लगे। कवि अपने को भूल गया । वह भूल गया कि मैं राज-दरबार में एक शक्तिशाली राजा के सामने खड़ा कविता पढ़ रहा हूँ। वह भूल गया कि मेरे चारों ओर राज्य के बड़े-बड़े पदवीधारी, उपाधिधारी, धनी, मानी लोग बैठे हैं। कवि सब कुछ भूल गया-वह अपना अस्तित्व भी भूल गया। राज- .
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