पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सचा कवि प्रवीण-यह ठीक है श्रीमान् , परंतु गुण-ग्राहकता उतनी ही होनी 'चाहिए, जितनी की उचित हो। महाराज कुछ भौहें सिकोड़कर बोले-तो क्या आप मुझ पर मह दोपारोपण करते हैं कि मैंने कुछ अनुचित गुण-ग्राहकता से काम लिया है? महाराज को कुछ अप्रसन्न होते देख प्रवीणजी का हृदय काँप उठा। वह हाथ जोड़कर बोले-"नहीं श्रीमान्, ऐसा कहने की पृष्टता मैं कदापि नहीं कर सकता । मेरा तात्पर्य यह है कि श्रीमान् ने जो उदारता दिखाई है, उसके योग्य वह युवक कदापि नहीं।" महाराज अधिक अप्रसन्न , होकर चोले- इसका भी अर्थ वही है; केवल शब्दों का हेर-फेर है। स्वार्थ मनुष्य को अंधा कर देता है। प्रवीणजी इस समय स्वार्थ के इतने वशीभूत हो गए थे कि उन्हें इसका ध्यान ही नहीं रहा कि कौन बात कहनी चाहिए और कौन नहीं । वह केवल इसलिये व्याकुल हो रहे थे कि जैसे बने, वैसे महाराज का हृदय मोहनलाल की ओर से फेर दें। इस व्याकुलता और जल्दी ने उनको बड़ी ही परिस्थिति में डाल दिया। महाराज को अधिकतर अप्रसन्न होते देखकर विजी महाराज ने लड़खड़ाती हुई जिह्वा से कहा-नहीं श्रीमन् , मेरा यह तात्पर्य कदापि नहीं । मेरे कहने में कुछ फ़र्क पद गया है, इसके लिये श्रीमान् मुझे क्षमा करें। महाराज प्रवीणजी की हास्यास्पद घबराहट देखकर हँसी न रोक सके। वह ज़ोर से हँस पड़े। महाराज को हँसते देख कविजी की जान-में-जान आई। उन्होंने कहा -क्या करूँ श्रीमन्, वृद्ध हो चला हूँ । सब इंद्रियाँ शिथिल होती जा रही हैं। कहना कुछ चाहता हूँ, मुँह से निकलता कुछ है।