सच्चा कवि होकर . प्रवीणजी ने अपने प्रति मोहनलाल के ये शब्द प्रवाक् सुने । वह नहीं समझ सके कि मोहनलाल ने ये शब्द यथार्थ प्रशंसा. में कहे, अथवा व्यंग्य से । महाराज ने कहा-सुनिए प्रवीणजी, मोहनलाल क्या कहता है । मोहनलाल ने कहा-मैं जो कुछ कहता हूँ, शुद्ध हृदय से कहता हूँ। मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मुझे प्रवीणजी की सेवा में रहने का शुभ अवसर प्राप्त हुा । मैं कविता लिखना सीख जाऊँगा। महाराज ने प्रबीएजी की ओर एक रहस्य-पूर्ण दृष्टि से देखा। उस दृष्टि में ये भाव थे कि देखा तुमने ? तुम्हारे प्रति मोहन के ऐसे उच्च भाव हैं, और तुम्हारे उसके प्रति ऐसे नीच ! प्रवीणजी ने इस दृष्टि का तात्पर्य समझ लिया। उन्होंने मर्माहत होकर अपनी आँखें नीची कर ली। उन्हें बड़ा दुःख हुआ । इस समय भी उन्होंने मोहन के श्रागे भएनी पराजय समझी। केवल महाराज की उस दृष्टि ने यह कैंपला कर दिया कि मोहन विजयी हुमा, और प्रवीणजी, आप परास्त ! (४) उक्त घटना के बाद प्रवीणजी मोहनलाल से और भी अधिक घृणा करने लगे। वह उसके कट्टर शत्रु हो गए। उन्होंने सोचा-इसी महाराज की दृष्टि से गिरता जा रहा हूँ । यदि यह सो यह नौवत काहे को पहुँचती। यह फल का छोकरा संत बनने का ढोंग रचकर मुझे महाराज की दृष्टि से गिरा रहा है। कितना चालाक है, कितना धूर्त है ! मैं बड़ा बुद्धि-हीन हूँ, जो अपने हृदय के भाव स्पष्ट खोल देता हूँ। यदि मैं भी इसी की तरह संत बनने का ढोंग रच, तो अच्छा रहे। परंतु नहीं, मुझसे तो ढोंग कदापि न रचा जायगा । मैं तो शुद्ध-हृदय मनुष्य हूँ, जैसा भीतर, वैसा बाहर । मुझे कपट नहीं आता ! जिसको मित्र सममूंगा के कारण न आता,
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