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पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१२०

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चित्रशाला

उसे हृदय में भी मित्र समर्मंगा और बाहर भी ; और जिसे शत्रु समर्मंगा, उसे हृदय में भी शत्रु समर्मंगा और बाहर भी। कुछ भी हो, मैं इस ढोंगी युवक को दरवार से निकलवाकर ही छोरूँगा । कल का छोकरा मेरे सामने राजकवि बनकर बैठा है। इसमें संदेह नहीं कि कभी-कभी दुष्ट बड़े गहरे भाव लाता है.। पर इससे क्या हुआ ? अब तो पगड़ी उलझ ही गई है। मैं भी ऐसी-ऐसी कविताएँ लिखूगा कि महाराज स्वयं कह देंगे कि प्रवीणजी, मोहनलाल क्या कविता लिखेगा, वह तो आपके सामने छोकरा है । हुँह ! मोहनलाल राजकवि ! राजकवि प्रवीण के सिवा भजा और कौन हो' सकता है ? एक म्यान में दो तलवारें भी नहीं रह सकती। या.तो वही राजकवि रहेगा या मैं ही । इसी तरह की बातें सोचकर प्रबोएजी ने नए उत्साह के साथ कविताएँ लिखना शुरू कर दिया। इसमें संदेह नहीं कि प्रवीणजी बढ़े.अच्छे कवि थे, बड़ी सुंदर कविताएँ लिखते थे । इधर मोहनकाज की प्रतिद्वंदिता के कारण वह बड़ी अच्छी कविताएँ लिखने लगे थे। उधर मोहनलाल भी अच्छी कविताएँ लिखता था। इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए। एक दिन महाराज ने एक समस्या दी, और मोहनलाल तयां प्रवीनी, दोनो से उसकी पूर्ति करने के लिये कहा। समस्या-पूर्ति के लिये एक सप्ताह का समय दिया गया । एक सप्ताह बीत जाने पर महाराज ने दोनों कवियों को बुलवाया। प्रवीणजी समस्या-पूर्ति करके ले पाए थे ; पर मोहनलाल नहीं लाया था। महाराज ने पूछा-क्यों मोहन, तुमने पूर्ति की ? मोहन ने उत्तर दिया-नहीं श्रीमन्, मैंने तो नहीं की। महाराज :ने विस्मित होकर पूछा-क्यों ? क्या समय कम दिया गया था।