पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१२३

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सच्चा कवि महाराज प्रवीणजी की बात पूरी होने के पूर्व ही बोल उठे- आपने सत्य कहा था । पर मैंने यह सोचकर कि युवक होनहार है, और प्रोत्साहन मिलने से एक अच्छा कवि होगा, इसे शाश्रय दिया था। मगर यह जो कहा है कि जो जिसका पात्र नहीं, उसके साथ वैसा व्यवहार करने से परिणाम बुरा होता है, वही हुश्रा । खैर, मैं इसे इसका समुचित दंट दूंगा। प्रयोगाजी बोल उठे-निश्चय दंड देना चाहिए। इससे लोगों को मालूम होगा कि एक शक्तिशाली राजा के सामने सृष्टता करने का यह परिणाम होता है। महाराज ने उसी समय यह प्राज्ञा निकाली कि मोहनलाल तुरंत गिरफ्तार करके कारागार में डाल दिया जाय। प्रवीणजी महाराज की इस श्राज्ञा से मन-ही-मन अत्यंत प्रफुल्लित होकर घर लौटे। उन्होंने सोचा- उनकी मनोकामना पूरी हुई। उनके मार्ग का काँटा दूर हो गया। (*) उक्त घटना हुए छः मास व्यतीत हो गए । मोहनलाल कारागार में पड़ा हुश्रा जीवन के दिन व्यतीत कर रहा इधर प्रवीणजी अपने पुत्र अविकाप्रसाद को राजकवि बनाने के लिये जी-जान से चेष्टा कर रहे हैं। परंतु प्रतिभा ईश्वर-दत्त होती है। वह चेष्टा और परिश्रम करने से उत्पन्न नहीं हो सकती। यदि प्रतिभा चेष्टा पोर परिश्रम से उत्पन्न हो सकती, सो संसार में उसका उतना मूल्य और श्रादर न होता, जो अब तक रहा है, और है। अंबिकाप्रसाद कविता सो करने लगा, परंतु उसकी कविताएँ अत्यंत साधारण होती थीं । सनमें कोई चमत्कार न था । प्रवीणजी यह देखकर हताश हुए। उन्होंने सोचा-जान पड़ता है, राजकवि की उपाधि मेरे ही तक है। हा ! मैं तो चाहता था कि यह कम-से-कम दो-चार पीढ़ियों तक । .