चित्रशाला सोचते-सोचते उनके ध्यान में यह बात थाई कि उस समय उन्हें यह चिंता रहती थी, यह भय रहता था कि कहीं मोहनलाल की कविता उनकी कविता से बद न जाय 1 वह यह सहन नहीं कर सकते थे कि उनकी कविता मोहनलाल की कविता से हेठो रहे । उनके सामने प्रत्येक समय यह देश रहता था कि ऐसी कविता लिखी जाय, जिसके आगे मोहनलाल की कविता धून हो जाय । इसी कारण उस समय उनके हृदय में उमंग रहती थी, जोश रहता था। प्रतिद्वंद्वो को परास्त करने की धुन उस समय उसकी कविस्व- शक्ति को जाग्रत् रखती थी । प्रतिद्वंद्विता का भय उन्हें अपनी कविता सागसुंदर बनाने के लिये विवश करता था । मोहनदान से प्रतियोगिता का भाव उन्हें इस बात के लिये विवश करता था कि वह नए-नए भाव अपनी कविता में लावें। परंतु अब वह बात नहीं रही। प्रदिद्वंद्वी का भय नहीं है ; न इस बात की चिंता है कि किसी की कविता से उनकी कविता की तुलना की जायगी न इस बात का डर है कि यदि दूसरे की कविता उनकी कविता से बढ़ गई, तो उनकी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जायगी । जब ये सब बातें नहीं रही, तो अब न वह उमंग है, न वह जोश
- न वह परिश्रम है, न
वह सूझ । जिस प्रकार शत्रु के प्राक्रमणं का भय होने से मनुष्य की श्रीख नहीं झपकती, वह हर समय चैतन्य रहता है, उसी प्रकार प्रतिद्वंद्वी के भय के कारण उनकी प्रतिभा सचेत रहती था। पर जिस प्रकार जब मनुष्य को किसी का भय नहीं रहता, तो वह श्राराम से पैर फैलाकर सो जाता है, उसी प्रकार प्रतिद्वंद्वी का भय न रहने से उनकी प्रतिमा भी सो गई। प्रवीणजी ने सोचा, तो इससे यह निष्कर्ष निकला कि उन्होंने उस समय जो इतनी अपूर्व कविताएँ लिखी, उसका कारण केवल मोहनलाल की प्रतिद्वंद्विता हो थी। प्रोफ् ! यदि यह बात थी, तो .