पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सञ्चा कवि उसका मेरा प्रतिद्वंद्वी बनकर रहना मेरे लिये हितकर था। जिस बात को मैंने अपने लिये अहितकर समझा था, वह मेरे लिये परम हित. कर थी। अाज प्रवीणजी की आँखें खुल गई। वह अपने जीवन की एक बड़ी भूल को समझ गए। वह सच्चे कवि थे और एक सच्चे कवि का हृदय रखते थे। वह संसार में कविता से अधिक किसी को न प्यार करते थे। जिस व्यक्ति के कारण उनकी कविताएँ सर्वप्रिय हुई, जिसके कारण उनकी कविता ने ऐसा मोहन-रूप धारण किया कि सबको मुग्ध कर लिया, उससे अधिक संसार में उनका प्यारा और कौन हो सकता है ? प्रवीणजी के मुख से निकला-"हा ! मोहन, मैंने उस समय तुम्हारा मूल्य नहीं समझा था, घृणित स्वार्थ ने मुझे धंधा कर दिया था ।" कवि की आँखों से अश्रु-धारा बह चली, वह बच्चों की तरह रोने लगे। प्रवीणजी महाराज , के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। महाराज ने पूछा-फहिए प्रवीणजी, आप क्या कहना चहते हैं ? प्रवीणजी ने कहा-महाराज, मैं श्रीमान् का पुराना दास हूँ। मैंने श्रीमान् की बहुत सेवा की है; और अभी जब तक जीवित हूँ, करता रहूँगा । श्राज तक मैंने श्रीमान् से कभी कुछ याचना नहीं की । जो कुछ श्रीमान् ने स्वेच्छा से हाथ उठाकर दे दिया, यह ले लिया, और सदैव संतुष्ट रहा। परंतु श्राज में श्रीमान् से एक भिक्षा . माँगता हूँ। महाराज ने उत्सुक होकर मुसकिराते हुए कहा--प्रवीणजी, अाज अाप इतनी दीनता क्यों प्रकट कर रहे हैं ?. मैंने श्रापको ऐसी दीनता प्रकट करते हए इसके पहले कभी नहीं देखा । । प्रवीणजी-महाराज मैं, अपनी कविता के लिये सब कुछ कर सकता