पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१२८

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चित्रशाला हूँ। आज मेरी परम प्यारी कविता पर घोर संकट है । इसीलिये मैं श्रीमान् के सामने इतना दीन बनने को विवश हुश्रा ! महाराज टमी प्रकार मुसकिराते हुए बोले-क्यों, क्यों, टस पर क्या संकट या पढ़ा? प्रवीगजी के नेत्रों से आँसू बहने लगे । उन्होंने कहा-वह मोहनलाल के साथ वागार में बंद है। महाराज का मुख एकदम गंभीर हो गया । उन्होंने कहा-क्या कहा, मोहनलाल के साथ कारागार में बंद है ? प्रवीणजी ने घासू पोछते हुए कहा-हाँ श्रीमन । महाराज-नो श्राप क्या चाहते हैं ? प्रवीणजी यही कि मोहननान को मुक्त करके उसे उसी पद पर नियुक्त कीजिए, जिस पर वह था । महाराज-परंतु प्रयागजी, वह सो श्रापका प्रतिद्वी है। प्रवीणनी-हा, ऐसा प्रतिद्वंद्वी है, जैसा प्रतिद्वंद्वी मनुष्य को बड़े सीमाग्य में मिलता है। ऐसा प्रतिद्वंद्वी है जिस पर मनुष्य गर्व कर सकता है ! वह ऐसा प्रतिद्वंद्वी है कि ईश्वर सबको ऐसा ही प्रनिहंद्वी दे। जब तक वह मेरे सामने रहा, तब तक मेरी कविता की उन्नति हुई । अापने स्वयं अपने श्रीमुख से कहा था कि मोहनलाल के समय में मैंने जो कविताएँ निम्नी, वे अद्वितीय हैं। महाराज हाँ, यह बात तो मैं अद भी कहता हूँ। प्रवीणजी-तो महाराज, जिस प्रतिद्वंद्वी ने मुन्सले ऐसी कविताएँ नित्रवाई, उस प्रतिद्वंद्वी का मिलना कितने बड़े सौमाग्य का सूचक है ! जिस दिन से वह कारागार गया, उमी दिन में मेरी कविश्व-शक्ति भी लुप्त हो गई । वह उसी के साथ चली गई। अतएव मैं यही मिक्षा माँगता हूँ कि टसे मुक्त कर दीजिए। महाराज ने कुछ देर तक सोचकर कहा-अच्छा, श्रापने भाज