पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१३

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चिनशाना

चिनशाना ४1 उनके पिता को भी उनकी इस महत्वाकांक्षा का पता लग गया था। अतएव वह भी इसी चेष्टा में रहे कि कोई मुशिक्षित पुत्र-वधु मिले। ईश्वर ने उनकी यह अमिनापा पूरी की। एक वकील साहब की कन्या मिल गई, जो प्रत्येक रहिसे सुखदेवप्रसाद के चित्तानुकून यी, विवाह-संबंध हो गया। यद्यपि वकील साहय ने विवाद में दहेज यहुत ही साधारण दिया, अन्य किसी प्रकार की धूमधाम भी नहीं की; परंतु तय भी सुखदेवप्रसाद और उनके पिता ने केवळ कन्या-रल पाकर ही अपने को धन्य माना। विवाह हो जाने के पश्चात् जब मुखदेवप्रसाद को पती प्रियंवदा देवी ससुराल पाई और सुखदेवप्रसाद से उनका प्रथम साशात् हुया, वो सुखदेवप्रसाद ने पत्नी का नख-शिख तथा उनकी योग्यता देखकर अपने भाग्य को सराहा । परंतु ज्यों-ज्यों दिन व्यतीत होने जगे और प्रियंवदा देवी की नव वधूचित लग्ना एवं संकोच में कमी होने लगी, त्यों-त्यों सुखदेवप्रसाद को पनी की ओर से निराशा-सी होने लगी। उन्हें पता लगा कि जिसको वह अमृत समके थे, वह विष निकला। इसका परिणाम यह हुया कि सुखदेवप्रसाद पत्नी की ओर से क्रमशः उदासीन होने लगे। शाम के आठ बज चुके थे, सुखदेवप्रसाद घूमकर घर लौटे और सीधे अपने निजी कमरे में पहुंचे। कमरे के भीतर पैर रखते ही उन्होंने देखा कि प्रियंवदा देवी पलंग पर पड़ी एक उपन्यास पढ़ने में मग्न है। पति के पैरों की श्राहट पाकर टन्होंने एक बेर पुस्तक पर से दृष्टि हटाकर पति की ओर देखा, तत्पश्चात् पुनः पुस्तक पर रष्टि जमा ली। पत्नी का यह व्यवहार देखकर सुखदेवप्रसाद के माये पर बल पड़ गया। उन्होंने चुपचाप कपड़े उतारे और एक घोर मेज़ के पास पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गए । शाम की डाक से कुछ पत्र यांए थे, वे मेज़ पर रक्खे हुए थे, उन्हें पढ़ने लगे। इस कार्य में - 3