स्वतंत्रता बीस मिनट के लगभग व्यतीत हुए । पत्र पढ़ चुकने पर उन्होंने पुनः घूमकर पत्नी की ओर देखा-वह उसी प्रकार उपन्यास-पाठ में दत्तचित्त थीं। कुछ देर तक सुखदेवप्रसाद उनकी ओर देखते रहे, तत्पश्चात् धीरे से बोले-कुछ भोजन-वोजन की भी फिक्र है या 'उपन्यास ही पढ़ा करोगी? प्रियंवदा देवी ने उसी प्रकार लेटे हुए कमरे में लगे हुए क्लाक की ओर देखा और बोली-अभी तो साढ़े पाठ ही बजे हैं, जरा और ठहर जामो, तब तक मैं यह परिच्छेद समाप्त कर लू । सुखदेव०-परिच्छेद पोछे समाप्त करना, पहले मेरे लिये भोजन का प्रबंध कर दो। प्रियंवदा देवी ने 'उह' कहकर पुस्तक पलंग पर पटक दी और भृकुटी चढ़ाए हुए, पलँग पर से उठकर कमरे के बाहर चली गई। वहाँ से थोड़ी देर के पश्चात् लौटकर बोली-भोजन आ रहा है। यह कह पलंग पर बैठकर पुनः पुस्तक उठा ली और बैठे-ही-बैठे पढ़ने लगीं। सुखदेवप्रसाद संध्या-काल का भोजन अपने कमरे में ही करते थे। कमरे से मिला हुआ ही एक यथेष्ट बड़ा स्नान-गृह था। इसका फर्श श्वेत टाइल्स का बना हुआ था। इसी फर्श पर एक नौकर ने पाकर एक बड़ा ऊनी श्रासन बिछा दिया और जल का लोटा तथा. गिलास रख दिए । इसके पश्चात् उसने दो थालियाँ लाकर श्रासन के सामने रख दी और सुखदेवप्रसाद से कहा-थाइए बाबूगी । इतना कहकर वह वहाँ से चला गया। सुखदेवप्रसाद उठे और उन्होंने पत्नी से कहा-चलो, भोजन कर लो। प्रियंवदा देवी बोलीं-तुम कर लो, मैं तो इस परिच्छेद को समाप्त करके भोजन करूँगी।
दो