पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चित्रशाला 1 पास्तव में कर्ज दिया गया है या नहीं। उनकी नीयत में कोई फर्क न था और न वह यही जानते थे कि यह सरासर जाल किया जा रहा है। तैरियत यह हुई फि दीवानजी को यद्यपि सज़ा हो गई, तथापि उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया कि उन्होंने जानी दस्तावेज़ धनाया है, वह अंत तक यही फहते रहे कि दस्तावेज़ सही है। यह पट्टी भी दीवानजी को वैरिस्टरों ने पढ़ाई यी कि यदि तुम ऐसा कहते रहोगे, तो टूट जायोगे । परंतु इससे उनका असली मतलब विश्वेश्वरनार को बचाना था; क्योंकि यदि दीवानजी अपना अपराध' स्वीकार कर जेते, तो बाद यह भी फद देते कि वैरिस्टर विश्वेश्वरनाथ ने भी जाली हस्ताक्षर बनाए हैं और अभी हाल ही में । ऐसी हालत में विश्वेश्वरनाथ का छूटना संभव हो जाता । दीवानजी इतने उदार या इतने उल्लु न थे कि अपना अपराध स्वीकार करके स्वयं तो जेजखाने चले जाते और विश्वेश्वरनाथ को बचा देते । परंतु इसकी नौबत नहीं पाई । वैरिस्टरों ने दीवानजी को धोके में रक्सा और दीवानजी घंत तक यही कहते रहें कि यह निर्देोप है। । विश्वेश्वरनाय के बरी होने के दूसरे ही दिन घनश्यामदास उनसे मिले ।घनश्यामदास ने पूछा-थरे, यह तुम क्या कर बैठे थे? विश्वेश्वरनाथ बोले-भई कुछ न पूछो, इस रुपए-रूपी राक्षस ने आँखों पर पट्टी बाँध दी थी। घनश्याम तो कुछ हाथ भी जगा? विश्वेश्वरनाथ-अरे यार, श्राबरू बच गई, यही गनीमत समझो; मिला कुछ नहीं। पाँच हजार मिले थे, वह खर्च हो गए। और कुछ अपनी गाँठ से दे बैठा। धनश्याम-मुझे आश्चर्य है कि दो हजार मासिक की आमदनी होने पर भी तुम्हें संतोष , न हुआ !