पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१८५

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ईश्वर का डर - यह कहकर ठाकुर साहब थानेदार को अलग ले गए। कहा- सब ठीक है। कितना दिलवाऊँ ? थानेदारो श्रापकी परवरिश हो । मुझे क्या, जो कुछ भी मिल जायगा, ठाकुर साहर~अच्छी बात है ठाकुर साहब ने सधुवा को बुलाकर कहा-तीन सौ रुपए वही बहुत है माँगते हैं। सधुवा-मालिक, इतना तो मेरे किएन होगा, मर जाऊँगा। बहुत गरोच आदमी हूँ। ठाकुर साहब-इससे कम में राजा न होंगे। सधुवा, नहीं मालिक, ऐसा ना कहो श्राप लव कुछ कर सकते है। ठाकुर-तो तुम क्या दे सकते हो, वह भी तो बतायो ? यह समझ लेना कि अदालत में भी तुम्हारे तोन-चार सौ रुपए खई हो जायेंगे, और फिर मा यह नहीं कहा जा सकता कि छूट ही जायगा। छूटे-न-छूटे । कौन जाने । हाकिम को क्या जाने क्या समझ में भावे । सधुवा--तो सरफार, प्राधे पर मामला सय करा दो। ठाकुर-देद सौ पर? सधुवा-~-हाँ मालिक, यह भा पेट मसोसकर जब बैल-वधिया वेगा, तब होगा । क्या करें, भाग फूट गया, वैठे-बिठाए दाँड़ देना पड़ रहा है। कलेजा नुचा पाता है । इन गाँववालों को......न- जाने सालों ने कय का बैर चुकाया । ठाकुर साहब ने कहा-अच्छा, देखो कहता हूँ, जो मान जायें। इसी प्रकार ठाकुर साहब ने दो-तीन बार इधर-उधर करके दो सौ में फैसला किया । सधुवा से बोले-यानेदार साहब दो सौ से कम पर किसी तरह राजी नहीं होते। .