चित्रशाला ठाकुर का कर्ज रखना ठीक नहीं । क्यों भाई रामचरन, मूठ फहता हूँ? रामचरन, जिसे हम अभी तक 'वही व्यक्ति लिखते आए है, वोला-यह बात तो ननकू भाई की मोलहो पाने ठीक है। जनम-मर देते रहोगे, भी ठाकुर में टरिन नहीं हो पाओगे । सममे साधू माई ? भैस दे डालो । तुम्हारी जिंदगी है, तो भैसें ममुरी पचास हो जायेंगी। कंचना अहिर के बाप ने ठाकुर से पंद्रह रुपए लिए थे। पाँच बरस तक वाप देते-देते भर गया, और चार बरस से कंचना दे रहा है, फिर भी पाँच रुपए बकाया में घुसेदे बैठे हैं। हर फसल में व्याज दिया जाता रहा, और दो-तीन रुपए असल में, फिर भी अभी तक पए नहीं पटे । कालका-तो किसी हिसाव हो से लेते होंगे। रामचरन-हिसाब-किताब कुछ नहीं । जो वह ठीक सममें, वही हिसाद है। इसके सिवा न कोई हिसाव है न किताब ! स्यौरत साल कंचना ने कहा-मालिक, मेरे हिसाब से तो रुपए आपके सब श्रदा हो गए । आकर बोले-अभी आठ रुपए बाकी हैं । कंचना बोला- नहीं मालिक, अव तो एक पैसा नहीं रहा । वस, ठाकुर प्राग हो गया । बोला-मार तो साले के पचास जूते । साला हमें वेईमान बनाता है। उसो बखत दस-पंद्रह जूते बेचारे के पढ़ गए। फिर अकुर बोले-अब साले, नुमे दम देने पड़ेंगे। दो रुपया जरीमाना किया। वेचारा माइ-पोंछ के बना पाया। अब वही दम अदा कर रहा है । कानका-फिर ननक काका, तुमने अकुर से पचीस रुपए काहे को लिए ? ननकूतो बवुश्रा, कुछ अदा करने के लिये थोड़े लिए हैं। वानी डेढ़ रुपया महीना व्याज दे देता हूँ। असल में एक पैसा 1
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