पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/३९

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चित्रशाला 1 9 बाबू-यावजी, जो कुछ हुआ सो हुअा, श्रव श्राप क्षमा करें। आगे यह काम कमी न होगा। राधाकांत-~क्या श्राप सच कहते है ? बाबू-सच हो नहीं, मैं श्रापको विश्वास दिलाता है। राधारांत-पर मुझे विश्वास कैसे हो? बाबू-मैं कसम खाता हूँ कि यदि प्रागे कभी ऐसा करु, नो... राधाकांत-भु श्राप पर विश्वास है और पूरी प्राशा है कि श्राप ऐसा मना श्रादमी अपनी कसम का पूरा ध्यान रखावेगा ! भून हरएक मनुष्य से होती है, पर जो अपनी भूल मान लेते हैं और धागे सतर्क रहते , चे सच्चे शारी है। राधाकांत ने बढ़ी देर तक बाबू साहब को समझाया, हर प्रकार ऊँच-नीच दिखाए, उनके इस व्यवहार से गरीबों को जितना कष्ट होता है, उसका चित्र खींचा। इसके पश्चात् उन्होंने वह काग़ज़ फाढ़ डाला और बाबू साहब से हाथ मिलाफर बोले-देखिए, एक बार में फिर सचे मित्र की हैसियत से श्रापको यह सलाह देता हूँ कि श्राप न तो यह काम स्वयं करें और न अपने सामने किसी दूसरे को करने दें। बाबू साहब की आँखों में आँसू भर पाए । टन्होंने गद्गद कंठ से कहा-ईश्वर बाहेगा, तो ऐसा ही होगा। राधाकांत शिवकुमार के साथ घर की नोर चल दिए । रास्ते में राधाकांत ने पूछा-~~-ऋहिए, अब श्रापको विश्वाल हुधा शिवकुमार- हाँ, इस समय तो उसकी बातों से यही मालूम होता है कि न करेगा, परंतु यदि अब भी करे ? राधाकांत -~-तब भी में एक बार और उसे सचेत करूंगा। शिवकुमार-~और यदि तब भी रे ? राधाकांत-ऐसे आदमी, विशेषतः जिन्हें अपनी प्रावर का कुछ , ?