चिनशाना । 1 उन्हें उनके स्वास्थ्य की ओर से सचेत करते रहते थे, पर श्यामाचरण इस और अधिक ध्यान नहीं देते थे। प्रायः यही फहकर टाल देते ये कि दवा नाता हूँ, और उससे फायदा भी है। परंतु यथार्थ में न तो टन्होंने किसी वैन अथवा टॉक्टर से अपने रोग की परीक्षा कराई और न कमो कोई दवा ही बाई । नतीजा यह हुआ कि उन्हें शय्या की शरण लेनी पड़ी। उनकी यह दशा देखकर मोहन बढ़े बितित हुए । वह श्यामाचरण को अपने ही घर में ले पाए। डॉक्टर से उनके रोग की परीक्षा फरवाई। टॉक्टर ने श्यामाचरण को भली भाँति देखा-माला | तत्पश्चात् मोहनलान को अलग ले जाकर उन्होंने कहा-रोग तो बड़ा भयंकर है। मोहन ने वनराकर पला-क्या है? डॉक्टर-तपे-दिक! मोहन-यो ! फिर ? डॉक्टर-दिक की तीसरी अवस्या है। रोग प्रति दिन असाध्य होता जा रहा है । पर श्राप घबराय नहीं, मैं पूरी चेष्टा करूँगा। डॉक्टर साहब नुसता लिवकर बजे गए। मोहन का चित्त बढ़ा व्याकुन्न हुधा । उन्हें श्यामाचरण पर क्रोध मी पाया कि लापरवाही करके इसने अपने हाथों अपना रोग बढ़ा लिया। श्यामाचरण ने मोहन से पूछा-क्यों माई, रॉक्टर ने क्या कहा? मोहन-कहा क्या, यही कहते थे कि जल्द पाराम हो जायेंगे। लापरवाही के कारण रोग कुछ बढ़ गया है । माई श्यामाचरण, तुमसे कितने दिनों से कह रहा हूँ, पर तुम सदैव यही कहते रहे कि. दवा खाता हूँ । अफ़सोस ! अदि मैं ऐसा जानता, तो स्वयं अपने हाथ से तुम्हें दवा खिन्नाया करता । ग्र, कोई हल नहीं, अब मी कुछ नहीं बिगहा तुम शीत्र उठ खड़े होगे।
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/५०
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