पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/५१

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प्रम का पापी श्यामाचरण के मुख पर एक हलकी सी मुसकिराहर दौड़ गई। दो मास तक लगातार मोहनलाल मिन की चिकित्सा कराते रहे । वह और उनकी पत्नी, दोनों श्यामाचरण की यथेष्ट सेवा-सुभूपा भी करते रहे । मोहनलाल की बुरी दशा थी। वह यही समझते थे कि उनका सगा तथा परम प्रिय भाई बीमार है। मित्र की चिकित्सा में जो कुछ खर्च होता था, सो सब वह अपने पास से खर्च करते थे। यद्यपि श्यामाचरण के कुछ रुपए बैंक में जमा थे, और श्यामाचरण ने मोहन को अधिकार दे दिया था, इह दिया था कि बैंक से रुपए ले लो, परंतु मोहन ने उस रकम में से एक पैसा भी नहीं लिया । श्यामाचरण से उन्होंने यही कह दिया कि बैंक से रुपए उठा लिए, और उन्हीं में से चिकित्सा का खर्च चल रहा है। श्यामाचरण अपने प्रति मोहन का यह प्रेम देखकर कभी-कभी एकांत में रोया करते थे। कभी-कभी कह उठते थे--मोहन, तुम देवता दो, और मैं पिशाच ! इसी प्रकार कुछ दिन और व्यतीत हुए। श्यामाचरण की दशा रत्ती-भर भी नहीं सुधरी । उनटी प्रति दिन बिगड़ती ही गई। अंत को एक दिन डॉक्टर ने मोहन से स्पष्ट कह दिया कि श्राप व्यर्थ इनकी चिकित्सा में रुपए नष्ट कर रहे हैं, यह अच्छे नहीं हो सकते । यह सुनकर मोहन को बड़ा दुःख हुआ। उनकी आँखों से असू बहने लेंगे। एक दिन मोहन शाम को ऑफिस से लौटे । पत्नी से भेंट होते ही उन्होंने पूछा--कहो, श्यामाचरण का क्या हाल है ? पत्नी ने कहा-हाल अच्छा नहीं है, घड़ियाँ दल रही हैं। भाज मुझे एक बंद लिफाफा दिया, और बोले-भाई साहब को दे . देना। मोहनलाल बोले-कहाँ, लायो ।