पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/५३

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प्रम का पापी ४५. - लगी। मैंने तुम्हारा असबाब ट्रेन में पहुँचाया। वही दिन-हाँ, अशुभ दिन था, जब मैं और तुम, दोनों मित्रता के सूत्र में बंध गए। तुमसे मित्रता होते ही मृत्यु की वक्र दृष्टि मेरे ऊपर पड़ी, और उसने मुझे धीरे-धीरे अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया। " "मोहन मैं बड़ा पापी हूँ, इसजिये तुम्हारे आगे अपना पाप प्रकट करते डरता हूँ। हाँ, यह जानते हुए भी कि तुम मुझसे बहुत प्रेम करते हो-यहाँ तक कि यदि मेरा पाप तुम पर प्रकट भी हो जाय, तो तुम मुझसे घृणा नहीं करोगे-मैं अपना पाप प्रकट करते डरता हूँ। परंतु उसे प्रकट किए विना इस संसार से जाने में कष्ट होगा, इसलिये बताता हूँ-सुनो। तुमसे मित्रता होने के पश्चात् जब मेरी-तुम्हारी घनिष्ठता बढ़ी और मैं तुम्हारे घर स्वतंत्रता-पूर्वक श्राने-जाने लगा, तब अचानक एक दिन मुझे ज्ञात हुआ कि मैं चमेली से प्रेम करता हूँ। देखो, विचलित मत होना, पहले पूरा पत्र पढ़ डालना । यह मेरी अंतिम भिक्षा-अंतिम याचना है। हाँ, तो मुझे ज्ञात हुआ कि मैं चमेली से प्रेम करता हूँ; क्योंकि जब मैं उसे देखता था, तब मेरा हृदय मेरे वश में नहीं रहता था। जिस दिन मुझे यह मालूम हुआ, उस दिन मेरे पाश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। मैंने सोचा, ! यह क्या ? मोहन की वहिन के प्रति मेरे हृदय में यह भावना ! मैंने निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ हो, हृदय से यह भावना निकालनी ही पड़ेगी। उसी दिन से मैं हृदय से युद्ध करने लगा, और उसी युद्ध के परिणाम स्वरूप आज तुमसे सदैव के लिये विदा हो रहा हूँ । मोहन, तुम्हें नहीं मालूम कि मैंने कितनी राते तारे गिनकर काटी हैं, कितने घंटे रो-रोकर व्यतीत किए हैं। जो रातें तुमने सुख की नींद में व्यतीत की है, वे ही रातें मैंने तड़प- तड़पकर विताई हैं । परंतु इतने पर भी मैंने हृदय को वश में रक्खा। .