पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/५४

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निशाना - - - तुम्हारे सामने कभी कोई ऐसी बातचीत नहीं की, जिससे तुम कुछ समझ सकते । यद्यपि मेरी शारीरिक अवस्था देखकर नुन्हें यह बान परता था कि मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है, परंतु इससे अधिक तुम कुछ नहीं जान सके। यह क्यों ? इसीलिये कि मैंने निश्चय कर लिया था, यदि हृदय किसी के सामने ज़रा मी मचला, तो उसे चीर- कर फेंक दूंगा, और यदि निहा ने कोई बात कही, तो उसे काट दालूगा । दो-एक बार मेरे जी में पाया कि तुम्हारे चरणों पर सिर रखकर नुमसे सब बातें कह दूँ, और प्रार्थना करूँ कि यदि तुम मेरे प्राण बचाना चाहते हो, तो चमेली का विवाह मेरे साथ कर दो। परंतु मुझे स्वयं अपने इस विचार पर हमी भाती थी । सोचता या, यह कर्मा संभव नहीं हो सकता। इस विचार को मन में दाना निरा पागलपन है। मोहन खत्री हैं, मैं ब्राह्मण । ऐसा विवाह होना कनी संभव नहीं हो सकता। प्रोस् ! कितनी वेदना, कितना कष्ट होता था । अपने जो की बात किसी से कहना तो दूर रहा, उसका संकेत भी नहीं कर सकता था। हृदय का दुःन्त्र कहने-सुनने से बहुत कुछ हलका हो जाता है; परंतु दुर्भाग्य ने मेरे साथ इतनी रिवायत्त भी नहीं की । इसका परिणाम यह हुश्रा कि मैं भीतर-ही-मीतर चुनता गया, और अब इस संसार से विदा हो रहा हूँ। भाई मोहन, विश्वास रखो, मैंने बहुत चेष्टा को, हृदय से बड़ी लड़ाई लड़ी, परंतु प्रेम पर विजय न प्रात कर सका। मेरी पराजय हुई और प्रेम की विजय । जिस समय मैं श्रावेश में श्राफर ग्रेन को परास्त करने के लिये ज़ोर लगाता था, उस समय निष्ठुर प्रेम, जानते हो, क्या करता था? वह मेरी बातों के सामने एक ऐसी मूर्ति लाकर खड़ी कर देता या, जिसे देखकर मेरे शरीर में कंपकंपी पैदा हो जाती थी, और मैं निबन्न होकर उसके सामने घुटने टेक देता था। "मोहन, मैंने ज्ञान बहा कि मैं अपने जी की बात जी ही में .