पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/७४

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चित्रशाटा 1 वह सब वहाँ बैठे-बैठे सा गया । मीत न मांगने की मैने पर वा ली थी। उन दो महीनों में मुझे किटनी मानसिक वेदना हुई, उसका वर्णन मैं नहीं कर सकता। कभी-कभी तो इतना निगश हो जाता था कि यही जी चाहता था कि श्राम हत्या कर लूं। परंतु जद अबोध श्यामा के मुख की ओर देखता था तो जीवन हे एक विकट मोह उत्पन्न होता था और हृदय में धारणा होती थी, चाहे जो कुछ हो, मैं बिना धन कमाए किसी तरह न मानूंगा । उसी , बेकारी की दशा में में एक दिन एक सड़क पर से जा रहा था स्यामा मी साय थी कि हाल एक बढ़े मकान के सामने मीड़ जमा देखी। मैं मामला देखने के लिये वहाँ गया । वाँ पहुँचकर मालून हुघा कि उस मकान में भाग लगी है । आग बुझाने का इंजिन उस समय तक नहीं पाया था। मान दो मंजिले पर खिड़की से सिर बाहर निकाले हुए एक स्त्री चिहा रही थी । एक इण में मुझे लोगों से ज्ञात हुआ कि वह श्री बाग के कारण करर से नीचे नहीं पा सकती और न किसी अन्य मनुष्य का यह लाहल होता था कि ऊपर जाकर उसकी सहायता करे। कुछ प्रादमी "सीड़ी लायो, सीदी नायो" चिठा रहे थे। लोग इतने बबराए हुए थे कि हत-युद्धि- से हो रहे थे। न-जाने उस समय सुन पर क्या भूत सबभर हुआ कि मैं श्यामा को वहीं छोड़कर, बिना अपने प्राणों का भय किए और स्यामा मविप्य के संबंध में सोचे, एकदन मकान के भीतर घुस गया। ऊपर पहुंचकर मुझे मालून हुशा कि प्राग इतनी भयं- कर नहीं थी कि कोई ऊपर श्रा-जान सक, पर लोग इतने घबराए हुए थे किकिसी का साहस नहीं पड़ता था। खैर ! मैं उस स्त्री कोनीचे उतार नाया। इतनी ही देर में पाग त्रुझाने का इंजिन भी आ गया और आग तुरंत बुना दी गई। सद मांत हो जाने पर मकान के मालिक ने मेरे हाय में सौ