पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/७६

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६८ चित्रशाला चुप हो गया । देदी कुछ क्षणों तक उसकी ओर देखता रहा, तत्पश्चात् बोला-"भाई रामनान, तुम्हारी कया बड़ी प्रवरज-मरी है। ऐसा अाज तक कहीं सुनने में नहीं पाया।" रामताज ने कहा-"यद्यपि मुझे अपना पिछला जीवन एक भयानक स्वाम-सा प्रतीत होता है, परंतु उसने जो प्रभाव मेरे हृदय पर छोड़ा है, वह इस जन्म में नहीं मिट सकता । माई छेदी, मेरा यह अनुभव है कि लघय-हीन मनुप्य मंसार में कोई बड़ा काम नहीं कर सरता। जिनका लक्ष्य केवल पेट भरना और तन ढाँकना होता है, वे अपना जीवन पशु के तुल्य व्यतीत करते हैं, उनसे कभी कोई उन्हेखनीय कार्य नहीं हो सकता । जिनका कोई निश्चित विशेष लक्ष्य होता है और साथ ही दृढ़-प्रतिज्ञ होते हैं, बहो संसार में कुछ कर जाते हैं । क्षय-हीन मनुष्य पशु की तरह जन्म लेते हैं और पशु की तरह जीवन व्यतीत करके मर जाते हैं । अच्छा, यह तो सब हुआ । अब तुम यह मिज्ञा- वृति छोड़ो और मेरे साय कशाचे चलो, वहाँ मेरे यहाँ भाराम से अपना शेय जीवन व्यतीत करो, क्योंकि मैं यह जानता हूँ कि मेरी इस उन्नति में तुम्हारा भी हाथ है । यदि तुम टस रात को मुझे वे खरी-खोटी बाते न सुनाते, तो मैं अाज रसा दशा में होता जिस दशा में मैं उस समय था । अतरव मेरा कर्तव्य है कि मैंने जो कुछ कमाया है, उससे उन्हें भी लाभ पहुंचा। लेडी की आँखों में कृतज्ञता के प्राँ मर पाए और उसने राम. लाल के चरणों की ओर पिर मुकाया; पर रामलाल ने उसे बीच ही में रोककर कहा-दो, यह क्या ? यद्यपि अाज मेरे पास टीन लाख रुपया है; पर मैं तुम्हारे लिये वही बाध वर्ष पहले का राम- लाल हूँ। कुछ क्षण तक चुप रहने के पश्चात् रामकाल ने कहा-मैंने एक बात और सोची है और वह है मिनुकों का टद्वार करना ! मैं चाहता