पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/८९

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'संतोप-धन - , हाथ में सौ-सौ यह सोचते और अपनी बुद्धिमत्ता पर गर्व करते हुए महाराज रामभजन पहले अपने घर पहुँचे । घर पहुंचते ही उन्होंने दो हजार के नोट अपनी संदूक में बंद करके ताला लगा दिया और अपनी माता तथा पती से उनका कोई ज़िक नहीं लिया। इसके पश्चात् उन्होंने अपने बड़े जड़के से दो भाने की मिठाई मँगाई और थोड़ी- 'थोड़ी दोनों जड़कों को देकर शेप आपने खाई और एक लोटा पानी तानकर पिता । उनकी पत्नी विस्मित थी कि श्राज पति को यह कहाँ की फिजूलखर्ची सूझी कि दो पाने की मिठाई चट कर गए । पर कुछ कहने का साहस न हुआ ! सोची-कहीं से पैसे मिल गए होंगे, जी न माना, मिठाई खा ली। पानी पी चुकने के पश्चात् वह सीधे दूकान पहुँचे और मालिक के रूपए के के दस नोट दे दिए। मलिक ने पूछा-नाज बड़ी देर लगाई ? महाराज बोले-लाला, अाज करेंसी में बड़ी भीड़ थी । महा- मुश्किल में नोट मिले हैं । घंटा-भर खड़े रहना पड़ा ! लाला यह सुनकर चुप हो गए। उन्हें नोट कहीं बाहर भेजने थे, सो उन्होंने उसी समय उनका वीमा करा दिया।महाराज रामभजन ने निश्चितता की एक गहरी श्वास ली। महाराज ने सोचा था कि अाज ही नौकरी छोड़ देंगे । परंतु फिर ध्यान पाया, ऐसा न हो कि किसी को कुछ संदेह हो जाय । अतएव चार छः दिन ठहर जाना चाहिए। रात को घर आए और भोजन करके अपनी चारपाई पर लेटे । थोड़ी देर में उनको माता उनके पास थाई और सिरहाने बैठकर पंखा डलाने लगीं। थोड़ी तक रामभजन- पढ़े यह सोचते रहे कि माता से सब हाल कह दें; परंतु साहस न होता था। अंत को यह तय किया कि अभी न बताना चाहिए । स्त्रियों के पेट में बात नहीं