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पृष्ठ:चोखे चौपदे.djvu/१८९

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चोखे चौपदे

छोड़ खलपन अगर नही पाता।
पर-विभव क्यों न तो उसे खलता॥
डाह जब है जला रही उस को।
मन बिना आग क्यों न तो जलता॥

क्यों न बनतें सुहावना सोना।
लाग कर लौहपन अगर खोते॥
पर नही कर सके रसायन हम।
पास पारस समान मन होते॥

किस तरह जी में जगह देते उसे।
जी बहुत जिस से सदा ऊबा रहा॥
मान वालों से मिले तो मान क्यों।
मन अगर अभिमान मे डूबा रहा॥

बार घर बार को न तो समझे।
जो न जी मे बिकार हो थमता॥
तो न बैठें रमा रमा धूनी।
मन रहे जो न राम में रमता॥