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कोर कसर

जो कभी मुँह मोड़ पाता ही नहीं।
क्यों उसी से आप हैं मुँह मोड़ते॥
सब दिनों जो जोड़ता है हाथ ही।
आप उस का हाथ क्यों हैं तोड़ते॥

बेकलेजे के बने तब क्यों न हम।
बाल बिखरे देख कर जो जी टॅगे॥
या किसी की लट लटकती देख कर।
लोटने जो साँप छाती पर लगे॥

बाँह बल ही व बाल है जिन को।
जो भले ढंग में नहीं ढलते॥
जो बने काल काल के भी हैं।
क्यों न छाती निकाल वे चलते॥

जो रही पूत-प्रेम में भाती।
क्यों वही काम की बने थाती॥
क्या खुलीं जो रही खुली आँखें।
देख कर अधखुली खुली छाती॥