पृष्ठ:चोखे चौपदे.djvu/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५७
केसर की क्यारी

प्यार का कुम्हला गया मुखड़ा खिला।
पड़ गये अरमान पर रस के घड़े॥
मल कितना ही निकल पल में गया।
खोल कर दिल खिलखिला कर हँस पड़े॥

आँख कैसे न तब बहा करती।
आँख ही आँख जब गड़ाती है॥
किस तरह तब हँसी न छिन जाती।
जब हँसी ही हँसी उड़ाती है॥

दिल छिलेंगे कभी न क्या उन के।
क्या पड़ेंगे न जीभ पर छाले॥
बेतरह छिल गये कलेजे को।
छील लें बात छीलने वाले॥

सामना जब बदसलूकी का हुआ।
तब बिचारी बूझ जाती दब न क्यों॥
बान ही जब है उलझने की पड़ी।
बात कह उलझी उलझते तब न क्यों॥