सरदार--(हंसकर) भला ! उसका नाम क्या है ?
सरदार-पत्नी--वही, सौसन--जिसे मै देहली से खरीदकर ले आई हूँ।
सरदार--क्या खूब ! अजी, उसको तो मै रोज देखता हूं।
वह गाना जानती होती, तो क्या मै आज तक न सुन सकता!
सरदार-पत्नी--तो इसमे बहस की कोई जरूरत नहीं है। कल उसका और रामप्रसाद का सामना कराया जावे ।
सरदार--क्या हर्ज ।
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आज उस छोटे-से उद्यान में अच्छी सजधज है । साज लेकर दासियां बजा रही है । 'सौसन' संकुचित होकर रामप्रसाद के सामने बैठी है । सरदार ने उसे गाने की आज्ञा दी । उसने गाना आरम्भ किया-- कहो री, जो कहिब को होई ।
बिरह बिथा अन्तर की वेदन सो जाने जेहि होई ॥
ऐसे कठिन भये पिय प्यारे काहि सुनावों रोई ।
'सूरदास' सुखमूरि मनोहर लै जुगयो मन गोई ॥
कमनीय कामिनी-कण्ठ की प्रत्येक तान में ऐसी सुन्दरता थी कि सुननेवाले, बजानेवाले---सब चित्र लिखे-से हो गये । रामप्रसाद की विचित्र दशा थी, क्योंकि सौसन के स्वाभाविक भाव जो उसकी ओर देखकर होते थे--उसे मुग्ध किये हुए थे।
रामप्रसाद गायक था, किन्तु रमणी-सुलभ भू-भाव उसे नहीं आते थे । उसकी अन्तरात्मा ने उससे धीरे-से कहा कि 'सर्वस्व हार चुका !'
सरदार ने कहा--रामप्रसाद,तुम भी गावो । वह भी-एक अनिवार्य आकर्षण से--इच्छा न रहने पर भी, गाने लगा।