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छाया
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दिवाकर की पहली किरण ने जब चमेली की कलियों को चटकाया, तब उन डालियों को उतना नहीं ज्ञात हुआ, जितना कि एक युवक के शरीर-स्पर्श से उन्हें हिलना पड़ा, जो कि कांट और झाड़ियों का कुछ भी ध्यान न करके सीधा अपने मार्ग का अनुसरण कर रहा है। वह युवक फिर उसी खिड़की के सामने पहुंचा और जाकर अपने पूर्व-परिचित शिलाखंड पर बैठ गया, और पुनःवही क्रिया आरम्भ हुई। धीरे-धीरे एक सैनिक पुरुष ने आकर उस युवक के कन्धे पर अपना हाथ रक्खा ।

युवक चौंक उठा और क्रोधित होकर बोला--तुम कौन हो ?

आगन्तुक हँस पड़ा और बोला--यही तो मेरा भी प्रश्न है कि तुम कौन हो? और क्यों इस अन्तःपुर की खिड़की के सामने बैठे हो ? और तुम्हारा क्या अभिप्राय है ?

युवक--मै यहां घूमता हूं, और यही मेरा मकान है । मैं जो यहां बैठा हूँ, मित्र! वह बात यह है कि मेरा एक मित्र इसी प्रकोष्ठ में रहता है; मै कभी-कभी उसका दर्शन पा जाता हूँ, और अपने चित्त को प्रसन्न करता हूँ।

सैनिक---पर मित्र ! तुम नहीं जानते कि यह राजकीय अन्तःपुर है। तुम्हें ऐसे देखकर तुम्हारी क्या दशा हो सकती है ? और महाराज तुम्हें क्या समझेगे?

युवक---जो कुछ हो; मेरा कुछ असत् अभिप्राय नहीं है, मैं तो केवल सुन्दर रूप का दर्शन ही निरन्तर चाहता हूँ, और यदि महाराज भी पूछे तो यही क कहूंगा।

सैनिक---तुम जिसे देखते हो, वह स्वयं राजकुमारी है, और वह तुम्हें कभी नहीं चाहती । अतएव तुम्हारा यह प्रयास व्यर्थ है।

युवक---क्या वह राजकुमारी है ? तो चिन्ता क्या ! मझे तो केवल देखना है, मै बैठे-बैठे देखा करूँगा । पर तुम्हें यह कैसे मालूम