पृष्ठ:छाया.djvu/७१

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पूत-सलिला भागीरथी के तट पर चन्द्रालोक में महाराज चक्रवर्ती अशोक टहल रहे है । थोड़ी दूर पर एक युवक खड़ा है ।सुधाकर की किरणों के साथ नेत्र-ताराओं को मिलाकर स्थिर दृष्टि से महाराज ने कहा-विजयकेतु, क्या यह बात सच है कि जैन लोगों ने हमारे बौद्ध-धर्माचार्य होने का जनसाधारण में प्रवाद फैलाकर उन्हें हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया है और पौण्ड्रवर्धन में एक बुद्धमूत्ति तोड़ी गयी है ?

विजयकेतु--महाराज, क्या आपसे भी कोई झूठ बोलने का साहस कर सकता है ?

अशोक--मनुष्य के कल्याण के लिये हमने जितना उद्योग किया, क्या वह सब व्यर्थ हुआ? बौद्धधर्म को हमने क्यों प्रधानता दी? इसीलिये कि शान्ति फैलेगी, देश में द्वेष का नाम भी न रहेगा; और उसी शान्ति की छाया में समाज अपने वाणिज्य, शिल्प और विद्या की उन्नति करेगा । पर नहीं, हम देख रहे है कि हमारी कामना पूर्ण होने में अभी अनेक बाधाएँ है । हमें पहले उन्हें हटाकर मार्ग प्रशस्त करना चाहिये ।

विजयकेतु--देव ! आपको क्या आज्ञा है ?

अशोक--विजयकेतु, भारत में एक समय वह था, जब कि इसी अशोक के नाम से लोग कांप उठते थे । क्यों ? इसीलिये कि वह बड़ा कठोर शासक था। पर वही अशोक जब से बौद्ध कहकर सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ है, उसके शासन को लोग कोमल कहकर भूलने लग गये है । अस्तु, तुमको चाहिये कि अशोक का आतंक एक बार फिर फैला दो; और यह आज्ञा प्रचारित कर दो कि जो मनुष्य