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पृष्ठ:छाया.djvu/७२

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छाया
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जैनों का साथी होगा, वह अपराधी होगा; और जो एक जैन का सिर काट लावेगा, वह पुरस्कृत किया जावेगा ।

विजयकेतु---(कांपकर) जो महाराज की आज्ञा !

अशोक---जाओ, शीघ्र जाओ।

विजयकेतु चला गया । महाराज अभी वहीं खड़े है । नूपुर का कल-नाद सुनाई पड़ा । अशोक ने चौंककर देखा, तो बीस-पचीस दासियों के साथ महारानी तिष्यरक्षिता चली आ रही है।

अशोक---प्रिये ! तुम यहां कैसे ?

तिष्यरक्षिता---प्राणनाथ ! शरीर से कहीं छाया अलग रह सकती है ? बहुत देर हुई, मैने सुना था कि आप आ रहे है; पर बैठे-बैठे,जी घबड़ा गया कि आने में क्यों देर हो रही है। फिर दासी से ज्ञात हआ कि आप महल के नीचे बहुत देर से टहल रहे है । इसीलिये मै स्वयं आपके दर्शन के लिये चली आई। अबभीतर चलिये ! अशोक---मैं तो आ ही रहा था । अच्छा, चलो।

अशोक और तिष्यरक्षिता समीप के सुन्दर प्रासाद की ओर बढ़े। दासियां पीछे थीं

राजकीय कानन में अनेक प्रकार के वृक्ष, सुरभित सुमनों से भरे, झूम रहे हैं। कोकिला भी कूक-कूक कर आम की डालों को हिलाये देती है । नव-वसन्त का समागम है। मलयानिल इठलाता हुआ कुसुम-कलियों को ठुकराता जा रहा है।

इसी समय कानन-निकटस्थ शैल के झरने के पास बैठकर एक युवक जल-लहरियों की तरंग-भंगी देख रहा है । युवक बड़े सरल विलोकन से कृत्रिम जलप्रपात को देख रहा है। उसकी मनोहर लहरियां जो बहुत ही जल्दी-जल्दी लीन हो स्त्रोत में मिलकर सरल