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अशोक
 


धर्मरक्षिता---नाथ, इस स्थान पर यदि सुख न मिला, तो मै समझूंगी कि संसार में कहीं भी सुख नहीं है।

कुनाल---किन्तु प्रिये, क्या तुम्हें वे सब राज-सुख याद नहीं आते?क्या उनकी स्मृति तुम्हें नहीं सताती ? और, क्या तुम अपनी मर्म-वेदना से निकलते हुए आंसुओ को रोक नहीं लेती? या वे सचमुच है ही नहीं ?

धर्मरक्षिता---प्राणाधार ! कुछ नहीं है। यह सब आपका भ्रम है। मेरा हृदय जितना इस शान्त वन में आनन्दित है, उतना कहीं भी न रहा । भला ऐसे स्वभाव-वर्धित सरल-सीधे और सुमनवाले साथी कहां मिलने ? ऐसी मृदुला लताएँ, जो अनायास ही चरण को चूमती है, कहां उस जन-रव से भरे राजकीय नगर में मिली थीं ? नाथ, और सच कहना, (मृग को चूमकर) ऐसा प्यारा शिशु भी तुम्हें आज तक कहीं मिला था ? तिस पर भी आपको अपनी विमाता की कृपा से जो दुख मिलता था, वह भी यहां नहीं है। फिर ऐसा सुखमय जीवन और कौन होगा?

कुनाल के नेत्र आ आंसुओं से भर आये, और वह उठकर टहलने लगे।धर्मरक्षिता भी अपने कार्य में लगी । मधुर पवन भी उस भूमि में उसी प्रकार चलने लगा । कुनाल का हृदय अशान्त हो उठा, और वह टहलता हुआ कुछ दूर निकल गया । जब नगर का समीपवर्ती प्रान्त उसे दिखाई पड़ा, तब वह रुक गया और उसी ओर देखने लगा।

पांच-छः मनुष्य दौड़ते हुए चले आ रहे है । वे कुनाल के पास पहुंचना ही चाहते थे कि उनके पीछे बीस अश्वारोही देख पड़े। वे सब-के-सब कुनाल के समीप पहुँचे । कुनाल चकित दृष्टि से उन सब को देख रहा था ।

आगे दौड़कर आनेवालों ने कहा---महाराज, हमलोगों को बचाइये।

कुनाल उन लोगों को पीछे करके आप आगे डटकर खड़ा हो गया।वे अश्वारोही भी उस युवक कुनाल के अपूर्व तेजोमय स्वरूप को देखकर,