पृष्ठ:छाया.djvu/८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
छाया
७८
 


महल से मिला था, और आज्ञा हुई थी कि इसे शीघा तक्षशिला के शासक के पास पहुँचाओ।

महाराज ने शासक की ओर देखा। उसने हाथ जोड़कर कहा--- महाराज, यही आज्ञा-पत्र लेकर गया था।

महाराज ने गम्भीर होकर अमात्य से कहा---तिष्यरक्षिता को बुलाओ।

महामात्य ने कुछ बोलने की चेष्टा की, किन्तु महाराज के भृकुटिभंग ने उन्हें बोलने से निरस्त किया; अब वह स्वयं उठे और चले ।

महादेवी तिष्यरक्षिता राजसभा में उपस्थित हुई। अशोक ने गम्भीर स्वर से पूछा--यह तुम्हारी लेखनी से लिखा गया है ? क्या उस दिन तुमने इसी कुकर्म के लिये राजमुद्रा छिपा ली थी ? क्या कुनाल के बड़े-बड़े सुन्दर नेत्रों ने ही तुम्हें अपने निकलवाने की आज्ञा देने के लिये विवश किया था ? अवश्य तुम्हारा ही यह कुकर्म है । अस्तु, तुम्हारी-ऐसी स्त्री को पृथ्वी के ऊपर नहीं,किन्तु भीतर रहना चाहिये।

सब लोग कांप उठे । कुनाल ने आगे बढ़ घुटने टेक दिये और कहा--क्षमा ।

अशोक ने गम्भीर स्वर से कहा--नहीं।

तिष्यरक्षिता उन्हीं पुरुषों के साथ गयी, जो लोग उसे जीवित समाधि देनेवाले थे। महामात्य ने राजकुमार कुनाल को आसन पर बैठाया और धर्मरक्षिता महल में गयी ।

महामात्य ने एक पत्र और एक अंगूठी महाराज को दी। यह पौण्डवर्धन के शासक का पत्र तथा वीताशोक की अंगूठी थी।