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अशोक
 


दिखा रहा है, जिसे देख कर पारसीक सम्राट 'दारा' के सिंहासन-मंदिर को ग्रीक लोग तुच्छ दृष्टि से देखते थे।

धर्माधिकार, प्राड्विवाक, महामात्य, धर्म-महामात्य रज्जुक, और सेनापति, सब अपने-अपने स्थान पर स्थित है । राजकीय तेज का सन्नाटा सब को मौन किये है।

देखते-देखते एक स्त्री और एक पुरुष उस सभा में आये । सभास्थित सब लोगों की दृष्टि को पुरुष के अवनत तथा बड़े-बड़े नेत्रों ने आकर्षित कर लिया। किन्तु सब नीरव है। युवक और युवती ने मस्तक झुकाकर महाराज को अभिवादन किया।

स्वयं महाराज ने पूछा--- तुम्हारा नाम ?

उत्तर---कुनाल ।

प्र०---पिता का नाम ?

उ०---महाराज चक्रवती धर्माशोक ।

सब लोग उत्कण्ठा और विस्मय से देखने लगे कि अब क्या होता है, पर महाराज का मुख कुछ भी विकृत न हुआ, प्रत्युत और भी गम्भीर स्वर से प्रश्न करने लगे---

प्र०---तुमने कोई अपराध किया है ?

उ०---अपनी समझ से तो मैने अपराध से बचने का उद्योग किया था।

प्र०---फिर तुम किस तरह अपराधी बनाये गये?

उ०---तक्षशिला के महासामन्त से पूछिये ।

महाराज की आज्ञा होते ही शासक ने अभिवादन के उपरान्त एक पत्र उपस्थित किया, जो अशोक के कर में पहुंचा।

महाराज ने क्षण-भर में महामात्य से फिरकर पूछा---यह आज्ञा- पत्र कौन ले गया था, उसे बुलाया जाय।

पत्रवाहक भी आया और कम्पित स्वर से अभिवादन करते हुए बोला---धर्मावतार, यह पत्र मुझे महादेवी तिष्यरक्षिता के