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छाया
६०
 


दिल्ली के दुर्ग पर गुलाम कादिर का पूर्ण अधिकार हो गया है। बादशाह के कर्मचारियों से सब काम छीन लिया गया है।रुहेलों का किले पर पहरा है । अत्याचारी गुलाम महलों की सब चीजों को लूट रहा है । बेचारी बेगमें अपमान के डर से पिशाच रुहेलों के हाथ, अपने हाथ से अपने आभूषण उतारकर दे रही है। पाशविक अत्याचार की मात्रा अब भी पूर्ण नहीं हुई । दीवाने-खास में सिंहासन पर बादशाह बैठे है। रुहेलों के साथ गुलाम कादिर उसे घेरकर खड़ा है।

शाह०---गुलाम कादिर, अब बस कर ! मेरे हाल पर रहम कर, सब कुछ तूने कर लिया । अब मुझे क्यो नाहक परेशान करता है ?

गुलाम---अच्छा इसी में है कि अपना छिपा खजानाबता दो।

एक रुहेला---हां-हां, हमलोगों के लिये भी तो कुछ चाहिये ।

शाह०---कादिर ! मेरे पास कुछ नही है । क्यों मुझे तकलीफ देता है ?

कादिर---मालूम होता है, सीधी उँगली से घी नहीं निकलेगा।

शाह०---मैने तुझे इस लायक इसीलिये बनाया कि तू मेरी इस तरह बेइज्जती करे ?

कादिर---तुम्हारे-ऐसों के लिये इतनी ही सजा काफी नहीं है। नहीं देखते हो कि मेरे दिल में बदले की आग जल रही है, मुझे तुमने किस काम का रक्खा ? हाय ! मेरी सारी कार्रवाई फजूल है, मेरा सब तुमने लूट लिया है। बदला कहती है कि तुम्हारा गोश्त में अपने दांतों से नोच डालू।

शाह०---बस कादिर ! मैं अपनी खता कुबूल करता हूँ। उसे