पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१०३

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जगद्विनोद। (१०३) नित कोऊ मत लीजियो, चन्द्रोदयको नाम॥८॥ प्राण त्यागि कहिये मरन, सो न वरणिबे योग । वर्णत शूरसतीनको, सुयश हेत कविलोम ॥ ८२ ॥ अथ मरणका उदाहरण-सवैया ।। जानकीको सुनि आरतनादसुजानि दशाननकी छलहाई । त्यों पदमाकर नीचनिशाचरआइअकाशमें आडयोतहाई ॥ रावण ऐसे महारिपुसों अति युद्ध कियो अपने बलताई । सोहित श्रीरघुराजके काजपै जीवतजै दो जटायुकीनाई ॥ पुनर्यथा ॥ कवित्त-पाली पैजपनकी प्रवेशकार पावकसों, पौनसे सिताब सहगौनका गमीमई । कहै पदमाकर पताका प्रेम पूरणकी, प्रकट पतिव्रतकी सोगुनी रतीमई ॥ भूमिहू अकाशहू पतालहू सराहै सब, जाको यशगावत पपिकीमी, सुनत पयान श्रीप्रतापको पुरन्दरप, धन्यपटरानी जोधपुरमें सतीभई ॥ ८४ ॥ दोहा- हनेराम दशशीशके, दशौशीश दशौशीश भुजबीस। लैजटायुकी नजरिजनु, उड़े गीध नवतीस॥८५॥ सह दुःखादिकवे जहां, होत कम्प भूपात । अपस्मार सो फेन मुख, श्वासादिकसरसात ।। ८६ ॥