पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/११०

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११०) जगद्विनोद । चीरडारो पलमें पलैया पैजपनहौं । दशरथ लालकै कराल कछु लालपरि, भाषत भयोई नेकु रावण न गनहौं । रीतो करों लंकगढ इन्द्रहि अभीतो करौं, जीतौं इन्द्रजीतौं आज तो मैं लक्षमन हौं ॥१५॥ दोहा-कारों बक्षन अक्षको, जो लगि मैं हनुमान ॥ तौलौं पलक न लाइहौं, कछुक अरुण अँखियान । लखिउदभटप्रतिभटजुकछु, जग जगातचितचाव सहरष सो नर बीरको, उतसाहस थिर भाव ।।१७॥ अथ उत्साहका उदाहरण ।। कवित्त-इत कपि रीछ उत राक्षसनहींकी चम, डंका देत बंका गढलंकाते कदैलगी। कहै पदमाकर उमण्ड जगहीकेहित, चित्तमें कछूक चोप चावकी च?लगी॥ बातनके बाहियेको करमें कमानकसि, धाई धूरधान आसमान में मडैलगी देखते बनी है दुहूँ दल को चढ़ा चढी में, रामगहू पै नेकलाली जो चढैलगी ॥ १८ ॥ दोहा-मेघनादको लखि लपण, हरषे धनुष चढाय ॥ दुखित विभीषण दबि रहो, कछु कूलेरघुराय ॥ विकत भयंकरके डरन, जो कछु चित अकुलात ॥ सो भयथायीभावहै, कछुसशंक जहँ गात ॥ २० ॥ .