पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/११३

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जगद्विनोद। (११३) त्योपदमाकर वेद पुराणपढ्यो पदिकै बहुबाद बढ़ायो । दौरचो दुरासमें दासभयोपै कहूं विशरामको धामनपायो । खायोगमायोसु ऐसेहीजीवन हाय मैं रामको नामनगायो । दोहा--पदमाकर कछु निजकथा, कासों कहों बखान । जाहि लखों ताहै परी, अपनी अपनी आन ॥३२॥ इति श्रीमोहनलालभट्टात्मज कविपद्माकरविरचित जगद्विनोद नाम काव्ये स्थायीभाव प्रकरणम् ॥ ५॥ 7 अश रस निरूपण वर्णन ॥ दोहा--मिलि विभाव अनुभाव पुनि, संचारिनके बन्द । परिपूरण थिर भाव यों, सुर स्वरूप आनन्द ॥३॥ ज्यों पयपाय विकार कछु, दै दधिहोत अनूप । तैसीही थिर भावको, वर्णत कवि रसरूप ॥ २॥ सो रसहै नव भाँतिको, प्रथम कहत शृंगार । हास्यकरुण पुनि रौद्र गनि, वीर सुचार प्रकार॥ बहुरि भयानक जानिये, पुनि बीभत्स बखानि । अद्भुत अष्टम नवम पुनि, सातसुरसउरआनि ॥ अथ शृङ्गाररस वर्णन ॥ दोहा--जाको थायीभाव रति, सो श्रृंगार सुहोत । मिलिविभाव अनुभाव पुनि, संचारिनिके गोत ॥ रति कहियतुजोमनलगनि, प्रीति अपरपरजाय । थायी भाव शृंमारके, भल भाषण कविराय ॥ परिपूरण थिर भावरति, सो शृंगार रस जान । .