पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(११४) जगद्विनोद । रसिकनको प्यारी सदा, कविजन कियो बखान ॥ आलम्बन श्रृंगारके, तियनायक निरधार । उद्दीपन सब सखि सखा, वनबागादि विहार ॥ ८॥ हावभाव मुसक्यानिमृदु, इमि औरहु जु विनोद । है अनुभाव श्रृंगार नव, कविजन कहत प्रमोद ॥ उन्मादिक सँचरत तहां, संचारी है भाव । कृष्ण देवता श्याम रंग, सो श्रृंगार रसराव ॥ सो श्रृंगार द्वैभांतिको, दम्पति मिलन सँयोग : अटक जहां कछु मिलनकी, सो /गार वियोग ॥ संयोग शृङ्गारका वर्णन -पुनर्यथा ॥ छप्पय--कलकुण्डलदुहुँडुलतखुलतअलकावलि विपुलित । स्वेद सीकरन मुदित तनक तिलकावलि सुललित॥ सुरत मध्य मतिलसत हरष हुलसतचर चञ्चल । कवि पदमाकर छ कित झपित झपि रहत दृगंचल । इमिनित विपरीतिसुरतिसमैअसतियसुखसाधकजुसब हार हर विरंचि पुर उरगपुरसुरपुरलैफहआज अब। दोहा--तियपियके पिय तीय के, नखशिख साजि श्रृंगार । कार बदलौतन मनहुको, दम्पतिकरतविहार ॥१३॥ जहँ वियोग पिय तीयको, दुखदायक अतिहोत । विप्रलभ शृगार सौ, कहत कविनको गोत ॥१४॥ वियोग श्रृंगारका वर्णन । पुनर्यथा--सवैया ॥ शुभशीतलमन्दसुगन्ध समीर कछू छल छन्दहूवै गये हैं।