पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/११८

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(११८) जगद्विनोद । मध्यमा वणन ॥ कवित्त-बैसहीकी थोरी पै न भोरीहै किशोरी है, याको चित चाहराह औरकी मझैयो जिन। कहै पदमाकर सुजान रूपखान आगे, आन बान आनकी सुआनकै लगैयो जिन॥ जैसे अब तसे सुधि सौहनि मनाय ल्याई, तुम इक मेरी बात येती बिसरैयो जिन । आजुकी घरीते लै सभूलि ह भलेही श्याम, ललिताको लैकै नाम बांसुरीबजयो जिन ॥३०॥ दोहा-आनि आनि तिय नामलै, तुमहिं बुलावत श्याम । लेन कह्यो नहिं नाहको, निज तियको जो नाम । आनि तिया रति पीउ लखि, होय मानगुरुआइ । पाँइ परे भूषण भरे, छूटत कहूं बराइ ॥ ३२ ॥ अथ गुरुमान वर्णन ॥ कवित्त-नीकीको अनैसी पुनि जसी होय तसी तऊ, यौबन की मूरतै न दार भागियतुहै । कहैपदमाकर उजागर गोविंद जोपै, चूकिगे कहूं तो एतो रोष संगियतुहै ॥ लै जगाय पाइल पहिार चलु प्रेम पागियतु है। येरी मृगननी तेरी पाइ लगियेनीपाइ, पाइ लागि तेरे फेर पाइ लागिपतुहै ॥३॥ प्रेम रस हाय लै हियेसोहित,