पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- जगद्विनोद । (१९) कहै पदमाकर त्यों साकरी गली है अन, इत उत भाजिवेको दांव ना लगत है। दौरि दधिदान काज ऐसो अमनैक तहां, आली बनमाली आइ बहियां गहत है। भादौं सुदी चौथको लख्यो मैं मृगअंक याते, झूठहू कलंक मोहि लागन चाहत है ॥ ९१ ॥ दोहा-कोऊ कछु अब काहुबै, मति लगाइये दोष । होनलग्यो बजगलिनमें, होरिहारनको घोष ॥१२॥ विविध विदग्धा जानिये, वचन विदग्धा एक । किया विदग्धा दूसरी, भाषत विदित विवेक ॥२३॥ वचन निकी रचनानिमों, जो साथै निजकाज ॥ वचन विदग्धा नायका, ताहि कहत कविराज ॥२४॥ अथ वचन विदग्धाका उदाहरण- सवैया ।। जब लौंपरकोधनि आवैवरै तबलौं वोकहींचित दबोकरो। पदमाकर ये बछरा अपने बछरानके संग चरैबोकरो ॥ अरु औरनके घरते हमसों तुम दूनी दुहावनी लबोकरो । नित सांझसबेरेहमागहहा हरिगैयां भले दुहिजैबोकरो ।। पुनर्यथा सबैया ॥ पिये पागे परोसिनके रसमें बसमें न कहूं वश मेरे रहैं। पदमाकर पाहुनीती ननदीनिशिनींदतजे अवसेरे रहैं । दुख और मैं कामोंकहौंकोसुनैबजकीवनिताहमफेरे हैं।