(२०) जगद्विनोद । न सखी घरसांझ सबेरे रहैं घनश्यामघरीघरीघरे हैं ॥९६।। दोहा--कल करील की कुंजमें, रहो अरुझि मो चीर । ये बलबीर अहीरके, हरत क्यों न यह पीर ॥९७॥ कनकलता श्रीफल परी, विजन बन फूलि । ताहि तजत क्यों बावरे, अरे मधुप मतिभूलि ॥ जो तिय साधै काज निज, करै क्रिया अनुमानि । किया विदग्धा नायका, ताहि लीजिये जानि ॥११॥ अथ क्रिया विदग्धाका उदाहरण कवित्त-वंजुल निकुंजनमें मंजुल महल मध्य, मोतिनकी झालरै किनारिनमें कुरबिन्द । आइये तहाई पदमाकर पियारे कान्ह. आनि जुरिगये त्यों चबाइनके नीके वृन्द ॥ बैठी फिर पूतरी अनृतरी फिरंग कैसी, पीठ द प्रबीनी हग दृगन मिलै अनन्द । आछे अवलोकि रही आई इस मंदिरमें, इंदीवर सुन्दर गोविंदको मुखारविन्द ॥१०॥ दोहा-कार गुलाल सों धुंधुरित, सकल ग्वालिनी ग्वाल । रोरीमीडनके सु मिस, गोरी गहे गोपाल ॥१॥ जातियको जिय आनरत, जानि कहै तिय आन । ताहि लक्षिता कहतहैं, जे कार्य कलानिधान ॥
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