पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जगद्विनोद । चाहत लह्यो पै लोक लाजनि लहै नहीं। कंत न मिलेको दुखदारुण अनन्त पय, चाहति कह्यो पै कछू काहूसों कहे नहीं ॥८३॥ दोहा--सजन बिहीनी सेजपर, परे पेखि मुकतान । तबहिं तियाको तनभयो, मनहुं अधपक्योपान ।। अथ प्रौढ़ा विपलब्धाका उदाहरण ॥ कवित्त-आई फाग खेलन गोबिन्दसों आनन्दभरी, जाको लसै लंक मंजु मखतूल ताग सो । कहै पदमाकर तहां न वाहि मिले श्याम, छिनमें छबीलीको अनंग दियो दागसों ॥ कोनकरै होरी काऊ गोरी समुझावै कहा, मागरीको राग लग्यो विषसों विरागसों । कहरसी केसर कपूर लग्यो कालसम, गाजसों गुलाब लग्यो अरगजा आगसों । दोहा--निरखि सेज रँग रँग भरी, लगी उसाँस लैन । अछु न चैन चितमें रह्यो, चढ़त चांदनीरैन ॥८६॥ अथ परकीया विप्रलब्धा॥ कवित्त--गञ्जन सुगंज लग्यो तेसो पौन पुंज लग्यो, दोष मणि कुञ्ज लग्यो गुञ्जनसों गजिकै। कहै पदमाकर न खोज लग्यो ख्यालनको, घालन मनोज लग्यो वीर तीर सजिकै ॥