पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/५१

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जगद्विनोद । दोहा-सुनि सखीनमुख शशिमुखी, बलम जाहिंगे दूरि । बूझ्यो चहति वियोगिनी, जिय ज्यावनकी मूरि॥४९॥ प्रौढा प्रवत्स्यत्ततिका ॥ कवित्त-सौदिन को मारग तहांको बेगिमांगीबिदा, ध्यारी पदमाकर प्रभात राति बीते पर । सो सनि पियारी पिय गमन बरायबे को, आंसुन अन्हाइ बोली आसन सुतीते पर ॥ बालम बिदेश तुम जातहो तो जाउ पर, सांची कहिजाउ कब ऐहो भौन रीते पर । पहरके भीतरकै दो पहर भीतरहीं, तीसरे पहर कैधौं सांझही व्यतीते पर ॥ ५० ॥ पुनर्यथा सवैया ॥ जात हैं तो अब जानदेरी छिनमेंचलबेकी नबातचलै हैं । त्यों पदमाकर पौनके झूकन कैलियाकूकनिको सर्हिलै हैं ॥ वेउल हैं बनबाग बिहार निहारि निहारि जबै अकुलै हैं । जैहैं न फेरिफिरेंवर ऐहैं सुगांवते बाहेर पांव न दैहैं ॥१॥ दोहा-अशन चले आंसू चले चले मैनकेवाण । रसन गमन सनिसुखचले, चलत चलेंगेप्राण ॥५२॥ अथ परकीया प्रवत्स्यत्प्रेयसी । सवैया । जो उरझान नहीं झरसी मृदु मालती मालब है मगनाख । नेहवती युवती पदमाकर पानी न पानकछू अभिलाखै । झांकि झरोखे रही कबकी दबकीदवकी सुमनैमन भाखै ।