पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/५४

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जगदिनोद । त्यो पदमाकर गावत गीत सुएकै चल उर आनँदछावत । यो नँदनन्दनिहारिबेको नँदगांवके लोग चले सब धावत ॥ आवत कान्ह बने बनते अब प्राण परोसे परोसिनपावत । दोहा-रमनि रङ्ग औरो भयो, गयो विरहको शूल ॥ आगो नैहर सो जो सुनि, वहै वैद रस मूल ॥६५॥ गणिका आगत पतिका उदाहरण- सवैया ॥ आवतनाह उछाह भरे अवलोकिवे को निज नाटक शाला । हौं नचिगाय रिझावहुँगी पदमाकर त्यों रचिरूप रसाला ॥ ये शुक मेरे सुमेरे कहे यों इते कहिबोलियो वैन विशाला। कंत विदेश रहेहौ जितै दिन देहु तितै मुक्तानिकीमाला॥६६॥ दोहा-वे आये ल्यायेकहा, यह देखनके काज ॥ सखिन पढ़ावति शशिमुखी, सजत आपनीसाज ६७ विविध कही ये सब तिया, प्रथम उत्तमामानि ॥ बहुरि मध्यमा दूसरी, तीजी अधमा जानि ॥६८॥ अथ उत्तमाका लक्षण । दोहा-सुपिय दोष लखि सुनिजुतिय, घरे न हियमें रोष । ताहि उत्तमा कहत हैं, सुकवि सबै निरदोष ॥६९॥ कवित्त-पाती लिखी सुमुखी प्रजान प्रिय गोविन्द को, श्रीयुत सलोनेश्याम सुखनि सने रहौ । कहै पदमाकर तिहारक्षेम छिन छिन, चाहियतु प्यारे मन मुदित घने रहौ ।। विलती, इकी है. के हमेशहु हमँचौ निज,